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Tuesday, March 27, 2018

समाज की सामाजिक परिस्थिति को शब्दों से दिखाती कविताय

                                                                         
कविताये 

मानवता की रक्षा में
 मनावता की परिसीमा को 
कभी सिकुड़ने न देना। 
रास्ट्रहितो के रक्षणार्थ 
राष्ट्रीयता सीमित न करना। 
विकास नही संघर्ष बिना 
ये बात याद हर पल रखना। 
जीवन सुन्दर बना रहे 
प्रयास सत् त कायम रखना। 
है दिव्या ज्योति सा ये जीवन 
प्रस्फुटित इसे करते रहना। 
धवल पुंज की आभा से 
नव आशाए भरते रहना 
पुलकित हो जिससे मन सबका 
बन दीप  सदा जलते रहना। 
अंधियारे में डूबे जग को 
तुम जल कर भी रोशन करना। 





कारवाँ  पल भर का 
आत्मा मुग्धता व् केन्द्रीय  प्रवृत्ति का उत्कर्ष ,
टीम भावना का कही दीखता नहीं प्रतिदर्प। 
सहयोग व् सामंजस्य का हो रहा अभाव ,
मानव बन उत्पाद ब-सजयया  खुद ने अपना भाव 
सही कारन सर्वत्र  छिणा है वर्चस्वा का जंग 
नहीं मिल रहा किसी को सुकून और सभी है तंग। 
करवा देख कर आंखे हुई है दंग ,
तरस रही है लोगो को।,आ देखने को एक संग 
लग रहा है जैसे टूट गया एकता का मिथक ,
तभी कर व के अस्तित्व  को कायम है हिजयक हजयक। 
अब जरुरत है अंतर मन का बने मजबूत कारवां ,
क्योकि संभव  नहीं है इस युग में  पल भर से ज्यादा का करवां। 





परिवर्तन की ज्वाला 
नव समाज के सृजन से प्रकश पुंज चहुँदिश बिखरेगा। 
कायम है जो तमस सब तरफ 
उसका धरती से विचरण होगा। 
आशयित जीवन से होकर 
सब आज के दीप जलायेंगे। 
धुंध निराशा जो छाया है 
ज्ञान से उसे मिटायेंगे। 
विकास मार्ग प्रसस्त सब करके 
गाथा नया रचेंगे। 
अब विकास उन्मुख है इंसा  
बस तलाश अवसर की 
अंतर बल को संरक्षित कर 
क्षुधा भाट  अब करनी है 
परिवर्तन की ज्वाला से 
हरमिता सुरक्षित करनी है। 





मै  विरोधी उचय -उचय
गीत  मुखरित है विरोधी ,
क्रांति का दूत हूँ। 
मै सुबह का गीत प्रभा ,
भाब्द कोमल प्रेम का। 
है सूर्य जिसको सींचता ,
मै वह कवच हूँ कर्ण  का। 
मै धवल का चण्ड निश्चल ,
जो मिटाता है निशा। 
भोज पत्रों पर छपा  मै मुक्त अक्षर ,
दो दिलो के मिलन का समय चक्र हूँ। 
वेदना का अंत बनकर घूमता ,
बन मलय समीर साड़ी व्योम में हूँ मै  विचरता। 
मै  तामस का अंत करता ,
सूर्य का प्रचण्ड हूँ। 
गीत मुखरीत मई विरोधी
क्रांति का दूत हूँ। 
व्यक्तिवाद के खिलाफ ,
एक नया जुंग हूँ। 




पर्यावरण 

अंधियाला है उदयप्रान्त में 
म्रियमाण हुआ प्राकृति 
नहीं रवानी गीत बिभा  में 
विचलित अलोक स्तम्भ 
आभामयी हिमाद्रिखण्ड
जो सत्वर खर खोते 
प्राचीर इस लोक के भी अब 
अपनी नियत तरसे है। 
था पियूष पट्टी पर भाबनम 
जीवन संचय हिट भटके 
निष्प्राण धरा निस्तेज गगन 
जल की भूचि धारा ,नहीं  बहे 
आह ! त्रिविध समीर भी दूषित 
कुछ छुब्ध नहीं , हर एवं तरसे 
सूख रही अब नदी धरा पर
 निशा अनवरत गहराती
आशाये अस्तित्व की मिटती 
मन में दुबिधा बी-सजयती 
पर्यावरण संरक्षण से ही 
सम्भव जले दीप की बाती 




सूनी  बगिया 
वैविध्य पेड़ो की एक सघन टोली 
जिसकी छाया  में पाता था पथिक प्रश्रय 
नौनिहाल मचाते थे हुड़दंग 
संपन्न होते थे गांव के कई खेल 
जहाँ गुंजाय मन होती रहती थी 
कोयाक की सुरीली आवाज 
पक्षियों की चहचहाहट से 
आह्लादित थी फ़िजा ये 
लेकिन वक़्त के बदलाव ने ,
ख़त्म कर दी बाग की हरियाली 
वृक्ष दिखने लगे खौफजदा 
क्योकि उनकी अमुकता का उठाते है लोग 
नजायज फायदा। 
नियमो की लगा कर वाट 
हजयुण्ड के हजयुण्ड वृक्षों को रही है काट 
वृक्षों की संवेदनाओ को करके तार - उचयतार 
अपने भौतिक सुखो के लिए 
पर्यावरण पर कर रहे है 
प्रलयकारी प्रहार। 
काश यहाँ भी मेधा पाटेकर , बहुगुणा 
जैसा कोई लेता अवतार
तो शायद वृक्षों पैर अत्याचार।
 होने से बच जाये मानव 
जीवन बंटाधार। 
अन्यथा वृक्षों के कटान के कारन 
ज्यो हो गई  बगिया सूनी 
ऐसे ही हो जाएगी जीवन की 
हसती खेलती  बगिया सूनी। 
यूँ अंत एक दिन होगा 
मुदित किये रहता धरती को 
नदियों का कल नाद। 
हरी उचयभरी है दिखती वसुधा 
वृक्ष हिमगिर करते श्रृंगार। 
पक्षी के कलरव से चहुँदिशि 
फ़ैल रही मंजिल मुस्कान। 
वृक्ष धरा के अनपम भूषण 
जीवन को दे सुख मूल्यवान। 
बदल गया माहौल धरा पर 
बदल गयी जीवन शैली 
प्राकृत बनी बाजार की चीजे 
न गांव शहर साबूत कही।
वन जंगल सब नस्ट हो रहे 
मिट रही जीवन के आधार सभी। 



 


 उद्दोग से धूल धूसरित 
संस्कारी मानव कही नहीं। 
देख इंसान का भोगी रवैया 
प्राकृत अचम्भित आज हुआ 
शोषण करके मानव् प्राकृत का 
खेल मौत का खेल रहा 
लगा नहीं यदि अंकुश अब भी तो जीने को तरसेंगे 
पानी की ही बात छोङो 
यह सीमित पहले से ही है 
पर सुद्ध वायु पाने के खातिर 
हम यहाँ उचय वहाँ  भटकेंगे 
घर-उचयघर में संघर्ष  के कारन 
कुछ पल जीने को तरसेंगे 


 कल्पनाओ का कब्रगाह 
हर कोई कल्पनाये संजोता है 
विचरण करने के लिए नील अम्बर  में। 
विचार क्रांति का समाज में नव प्रयाण 
बनने के लिए। 
मरू भूमि में हरिमिता लेन के लिए। 
सूखे भूमि में जल प्रवाहित करने  
नदी की लहरों में मस्ती के साथ क्रीड़ा 
करने के लिए। 
मलय समीर के संग बहकर सर्वत्र सुरभि 
विसरिट  करने के लिए 
एकाकीपन को तोड़ नव  संगम के सृजना की। 
  अनास्था को मिटा मन में आस्था को 
धारण करने की 
क्षमताओं को आलोकित कर नवप्रभा के सृजन की। 
लेकिन धरा हो गई कल्पनाएं दफन हो गए सभी ख्वाब
मरुस्थल बन गई इबादतगाह
 क्योंकि पोषक है सभी अत्याचार के 
 और शोषण की करते हैं जयउचय जय कार 
जहां तब होता था प्रसिद्धि का नया पैमाना
 बन चुका है कल्पनाओं का कब्रगाह पुराना





पालने का सुख 
अनमोल
, फूलों की सेज से भी अधिक|
सुखद अनुभूति का एहसास कराता 
की ममता व् पिता की छत्रछाया 
की भांति
 संरक्षित करता है
 नीले अंबर की तरह
 मानव जीवन की अद्भुत बेला 
अवर्णीय सुख का अनुपम क्षण
 मां का लहराता आंचल
 जब तो होता है
 ऐसा एहसास 
जैसे नभ ही है इर्द-गिर्द रक्षक बन कर 
असख्य तारों के संग

देता है साहस व सीख
 कल्पनाओं की उड़ान भरने की
 आसमान की ऊंचाइयां छूने की
 पालने की डोरी 
जिसे खींचती और छोड़ती है मां 
अपने दिव्य हाथों से 
तैरता है पालना हवाओं में
 किलकारियां कानों को 
कराती है रसास्वाद पालने में 
जो करती है प्रेरित रहने को अडिग 
पहाड़ों की तरह तेज हवाओं में 
और बिखेरने के लिए मुस्कान 
 जिससे अनवरत फैलती रहे खुशियों की तरंग।
 जैसे पंख इतराता खुशियों से 



 जब उसमें खिलता है कमल ।
पालने को मिलता है दिल्ली सुकून
जब उसमें खेलता है अबोध व सुकोमल।
हे ईश्वर बस इतना ख्याल रखना
पालने का सुख हर नवोदित को प्रदान करना
मां बाप के हाथों में थमा कर उस की डोरी
सौभाग्य था कि कोमलता को अपने प्यार से सिंचित करना। 


है अनमोल जिंदगी
जिंदगी अनमोल इसका
अवमूल्यन ना होने कभी दो।
बह रहा है आदमी सरि की लहर में
बाँह को मजबूत एक पतवार कर दो
है पथिक भटका हुआ जो राह पर
उस पथिक की राह को आबाद कर दो।
अंतः शिखा को जो दबाकर घूमते
सारथी बनकर उन्हीं का राह चलना ही सिखा दो
है घना कोहरा नजर के सामने
सूर्य को लाकर गगन में
है दिवा य बोध भर दो।
कायम है दुविधा और संशय का कहर
ज्ञान के संचार से अवसान उसका आज कर दो
कुछ नहीं निश्चित धरा पर क्या मिले
है मिला जो एक जीवन बस इसे तुम प्यार कर लो । 


दूषित राजनीति
मानवता के दुश्मन को
अब जीवन वायु ना देना है
छोड़ पुरानी रीत हमें अब
नीति नया कुछ सजाना है
नहीं बचेगा देश अगर
संस्कृति नजर क्या आएगी
तार उतार हो अपनी सभ्यता
ऐसे ही मिट जाएगी
जिस पर दुनिया को नाज बहुत
इतिहास में बस रह जाएगी
वक़्त यहीं हो चेतना जागृत
वरना पछताना भी नामुमकिन
विश्व के नक्शे पर भारत का
दिखना भी होगा मुश्किल
बन आवाज हाय देख रहे हम
हमला निशदिन दुष्टों का जारी है
मंजर दिखता साफ मगर
राष्ट्रीय राजनीति से हारी है
कुपोषण से ग्रसित नेता
राष्ट्रीय हितों पर भारी है।
मैं बचपन हूं ऊचय -उचय
मैं वात्सल्य का भूखा हूं
पाऊं मैं भी खुश हो जाऊं
अपने तंबोली अधरों से
मुस्कान सर्वथा फैलाऊं
धरती के गर्भ का मैं कौस्तुभ
पहचान के खातिर तरसूं
नीलमणि हूं हिमगिरी का
अनमोल बहुत ना सर्वत्र व्याप्त
स्वाति नक्षत्र का मेघ वारी
जिसका चातक को इंतजार
मैं तूणीर हूं अर्जुन का
जिसमें अकाट्य हैं कई बाण
मैं बचपन हूं जो अति कोमल
चमक रहा मेरा ललाट
मैं रश्मि पुंज हूं राहों का
मिटा तमस करता श्रृंगार
मैं हारिल हूं उस मधुबन का
जो बांट रहा निस्वार्थ प्यार। 

जागृत का दीप
आलोकित होगी वसुधा
संताप हरण हो जाएगा
शिक्षा के संचरण से ही
जागरण दीप जल जाएगा
मिट जाएगा भ्रम सभी का
उदय नए पल का होगा
कर्म योग के ही साधक सब
नवप्रभात मुस्कुराएगा
शिक्षा नवनिधि की रचना करके
प्रछन्नता से मुक्ति दिलाएगा
अतुल्य और अनमोल बहुत
यह उत्कर्ष नया रचाएगा
परंपरा को कर संरक्षित
मानवता का दीप जला आएगा
प्रकाश तत्व बनकर शिक्षा
जीवन साकार कराएगा । । 




कलम विचार भक्ति है, कलम है वाहक
यह नए क्रांति की उद्घोषक
आत्मसात है कि यह दिव्य गुण
उद्गार ओ को देती रूप
सुप्त पड़ी संवेदना के लिए
कलम आदि से प्रेरक
विचार क्रांति छेड़ कलम
बनी है मानवता की रक्षक
घना धुंध यह मिटा चक्षु का
हाय ज्ञानदीप रोशन करती
अपनी अनुपम भक्ति से
विचार क्रांति अछुण्ण रखती
ज्ञानयोग कि यह विस्तारक
है समाज की अद्भुत पोषक
विश्व गिरा संक्रमण से चहुं दिश
आसान नहीं उबर पाएं
कलम साधना से ही संभव
नई क्रांति आपये
विचार भक्ति है, कलम है वाहक
सुचिता संरक्षित करती
यही सही शब्द संयोजित करके
गीत विभा की रचना करती। ।

रात चांदनी आएगी
मिट जाएगा घना अंधेरा
जब रात चांदनी आएगी
ना होगा संताप कहीं
ना ही सूखा तालाब कोई
हंसते नजर सभी आएंगे
ना अंधेरे का एहसास कहीं
वैमनस्य ना कहीं दिखेगा
ना रिश्ता कहीं झूठा होगा
कर्म योग के साधक सब
निराश नहीं कोई होगा
रात चांदनी आते ही
कृष्ण कली खिल जाएगी
तमस सिकोड़कर अपनी वाणी
दूर धरा से जाएगा
इतना तो निश्चित ही है कि
रात चांदनी आएगी। ।

क्षमा
परस्कृत मन के यह द्दोतक
दृश्य सजयक की परिचायक
क्षमा धैर्य व अनुपम भक्ति
सहनशीलता की प्रेरक
यह अचूक प्रयोग ज्ञान की
मानवता की रक्षक
कठिन योग, है धारण करना
क्षमा भावना ना आसान
सहनशीलता के ही गुण से
बने हैं मानव कई महान
परंपरा कुछ ने बदली है
कुछ ने समाज की धारा
बुझा दीप भी हुआ है रोशन
क्षमा योग के जरिए
दुखियारों का कष्ट मिट गया
इस धैर्य के जरिए। ।




पत्रकारिता
सिखा गई महसूस वह करना
जीवन के हर एक पल को
बदल के मेरा जीवन दर्पण
वह हंसा गई अंतस्तल को
जला कांति की ज्वाला
कर्तव्य नया कुछ सौंप गई
नव लक्ष्यों की रचना करके
वह कलम का साधk बना गई
जल रहा दीप ना बुझ जाए कभी
इस कारण बाती बना गई
यज्ञ की पावन समिधा के हित
कलम साधना सिखा गई


वृक्ष व्यथा
जल गया वसन , जल रहा बदन
लहू है बिखरा इधर-उधर
आक्रांत अग्नि से व्याकुल दिखता
chahudishi में सब का ही मन
जल रही हरीतिमा दिनकर सी
लगाकर अंकुश खुशियों पर
सब ठीक है
है नागवार जो मिला दर्द
सच में देखो अनुभूति खाक
पल भर में प्रलय छेणआग
कर गई विखंडित चेतना आज
दृश्य संकल्पित हो किया संघर्ष
ना झेल सका अग्नि प्रहार
है बच्चा नहीं अब कुछ अपना
इस कारण व्याप्त क्रंदन अपार
मन का सुख
हर शख्स के लिए है दर्द कई
हर जर्रे संग तनहाई है
बात बन गई कईयों की
कईयों ने झेली कठिनाई है
गुमनाम बहुत है सड़कों पर
कुछ नहीं तख्त तो पाई है
सुखी यहां कम ही मानव
क्योंकि संतोष पराई है
आक्रांत कभी मन ना करना
सुख-दुख की परछाई है। । 




पाखंडी आस्था
पाखंड मानव का सपना
हाय खंड-खंड करता एक मन
नासत्य पर विश्वास है
न प्रकृति को माने निरा
निज से उठे आस्था
की घट गया है जीवन रास्ता
अंधविश्वासों में ऐसे जकड़े
है कष्ट लिए घूमे पहले
बस अहं की ही वजह
न स्वीकार प्रकृति की दास्तान
इसलिए ही घट रहा अब
खुद से खुद में आस्था। । 



मन के मोती
शब्द सत्य है, शब्द ब्रह्म है
है शब्द साधना जीवन की
शब्द अमर है, शब्द भागवत
साम्राज्य शब्द का सदियों से
मानव गाथा कहता आता
शब्द अलंकृत कर देते हैं
दिल के तारों को बन संगीत
शब्दों के श्रृंगार से ही
हैं मधुर लगे शहनाई भी
सुधा सुधा शब्द के बनते ही
क्षुधा शांत है कर जाते
करके ए संचार प्रेम का
विश्व पताका फहराते
शब्द ऐसे मन के मोती
जो चमक व खुशियां फैलाते। । 

क्यों आयो बसंत 
छेड़ प्रीत आसी के मन में 
तेहि पे नजर लगायो 
क्यों आयो री बसंत 
अति शुचि रूप दिखा शभी के 
फिर ओझल होइ गयो 
न मन को साज सजयो 
क्यों आयो रे बसंत 
रश्मि पुंज संग सूरज के 
थे कुछ सन्देश भेजयो
डाल उचय डाल व् पात उचय पात पर 
अपने रंग सजायो की मन सब के बहलायो 
क्यों आयो रे बसंत 
जगा प्रीत की रीत जिया मे उसमे आग लगायो क्यों आयो 
रे बसंत 



लो बसंत है आयो 
बोल पपीहा कोयल बानी 
बाग़ में चहुदिशि गूंजे 
ओ सजे धरा द्रुमदल के आँचल 
एहसांस नया है जगे रे 
कि ऋतू राज है फिर आयो ऋ
खेतान के सरसो फूलो पर 
भ्रमर गीत सुनायो
लो बसंत है आयो 
मधुकर रस चूसन के खातिर 
बहुत दूर उड़ आयो 
आम मंजरित सघन बहुत 
टहनी नीचे झुक आयो 
लो बसंत है आयो
 की लो बसंत है आयो
वह समीर मादक














 

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